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शेर
पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
रोना ख़ुद अपने हाल पे ये ज़ार ज़ार क्या
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
उठा पर्दा तो महशर भी उठेगा दीदा-ए-दिल में
क़यामत छुप के बैठी है नक़ाब-ए-रू-ए-क़ातिल में
फ़ना बुलंदशहरी
शेर
हट के रू-ए-यार से तज़ईन-ए-आलम कर गईं
वो निगाहें जिन को अब तक राएगाँ समझा था मैं
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
जो करते आए हैं इंसाँ न करते हम तो क्या करते
तिलोकचंद महरूम
शेर
'सुहैल' उन दोस्तों का जी लगे किस तरह कॉलेज में
जो दर्स-ए-शौक़ लेते हैं किताब-ए-रू-ए-जानाँ से
सुहैल अज़ीमाबादी
शेर
हम रू-ब-रू-ए-शम्अ हैं इस इंतिज़ार में
कुछ जाँ परों में आए तो उड़ कर निसार हों
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
शेर
करें ताक़त गँवा कर आबिदाँ मय-ख़ाना कूँ सज्दा
क्या ज़ुन्नार में तस्बीह देखन रू-ए-ज़ेबारा