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शेर
जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
अज़हर फ़राग़
शेर
वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
उस को हम क्या खोएँगे जिस को कभी पाया नहीं
परवीन शाकिर
शेर
दुश्मन-ए-जाँ ही सही साथ तो इक उम्र का है
दिल से अब दर्द की रुख़्सत नहीं देखी जाती
अख़्तर सईद ख़ान
शेर
कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
जिन की रुख़्सत ने हमारा शहर सूना कर दिया
फ़ातिमा हसन
शेर
सब से अच्छा कह के उस ने मुझ को रुख़्सत कर दिया
जब यहां आया तो फिर सब से बुरा भी मैं ही था
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
शेर
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
मेरी आँखों में कहीं बरसात बाक़ी रह गई