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शेर
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
जो करते आए हैं इंसाँ न करते हम तो क्या करते
तिलोकचंद महरूम
शेर
जुदाई की रुतों में सूरतें धुँदलाने लगती हैं
सो ऐसे मौसमों में आइना देखा नहीं करते
हसन अब्बास रज़ा
शेर
'सिराज' इन ख़ूब-रूयों का अजब मैं क़ाएदा देखा
बुलाते हैं दिखाते हैं लुभाते हैं छुपाते हैं
सिराज औरंगाबादी
शेर
दिनों महीनों आँखें रोईं नई रुतों की ख़्वाहिश में
रुत बदली तो सूखे पत्ते दहलीज़ों में दर आए
एजाज़ गुल
शेर
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
दीन अपना है यही और यही इस्लाम अपना