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शेर
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
शेर
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरते तलक नाख़ुन न बढ़ जावेंगे क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
तिरी कोशिश हम ऐ दिल सई-ए-ला-हासिल समझते हैं
सर-ए-मंज़िल तुझे बेगाना-ए-मंज़िल समझते हैं
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
जाती नहीं है सई रह-ए-आशिक़ी में पेश
जो थक के रह गया वही साबित-क़दम हुआ
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
दिल है शौक़-ए-वस्ल में मुज़्तर नज़र मुश्ताक़-ए-दीद
जो है मशग़ूल अपनी अपनी सई-ए-ला-हासिल में है
रशीद लखनवी
शेर
ख़ुदा को सज्दा कर के मुब्तज़िल ज़ाहिद हुआ अब तो
तो जा कर मह-जबीं के आस्ताँ पे जुब्बा-साई कर