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शेर
बेश ओ कम का शिकवा साक़ी से 'मुबारक' कुफ़्र था
दौर में सब के ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ पैमाना रहा
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
छलकी हर मौज-ए-बदन से हुस्न की दरिया-दिली
बुल-हवस कम-ज़र्फ़ दो चुल्लू में मतवाले हुए
सज्जाद बाक़र रिज़वी
शेर
नहीं है ख़ूब सोहबत हर किसी कम-ज़र्फ़ से लेकिन
नहीं गर मानते अज़-राह-ए-नादानी तो बेहतर है
फ़ख़रुद्दीन ख़ाँ माहिर
शेर
अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
हिर्स-ए-ज़र के हर तराज़ू में सुख़न-वर रख दिए
बख़्श लाइलपूरी
शेर
तंग पैमाई का शिकवा साक़ी-ए-अज़ली से किया
हम ने समझा ही नहीं दस्तूर-ए-मय-ख़ाना अभी
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
शेर
साकिन-ए-दैर हूँ इक बुत का हूँ बंदा ब-ख़ुदा
ख़ुद वो काफ़िर हैं जो कहते हैं मुसलमाँ मुझ को
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
फिर वही हम हैं वही बुत है वही ज़ुन्नार है
क़ाएम चाँदपुरी
शेर
मुझ से दरिया-नोश को साक़ी पिलाता है शराब
देखता हूँ मैं भी ज़र्फ़-ए-शीशा-ओ-पैमाना आज
हैदर अली आतिश
शेर
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
इतना आसान तिरे इश्क़ का ग़म था ही नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
ईमान ओ दीं से 'ताबाँ' कुछ काम नहीं है हम को
साक़ी हो और मय हो दुनिया हो और हम हों