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शेर
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
कि हम परिंदे मक़ामात-ए-गुम-शुदा के हैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
गोश-ए-मुश्ताक़-ए-सदा-ए-नाला-ए-दिल अब कहाँ
शेर अगर दिल के लहू में डूब कर निकले तो क्या
ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब
शेर
वो सुन रहा है मिरी बे-ज़बानियों की ज़बाँ
जो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा-ओ-ज़बाँ से पहले था
अकबर अली खान अर्शी जादह
शेर
लम्स-ए-सदा-ए-साज़ ने ज़ख़्म निहाल कर दिए
ये तो वही हुनर है जो दस्त-ए-तबीब-ए-जाँ में था
अहमद शहरयार
शेर
बहुत बर्बाद हैं लेकिन सदा-ए-इंक़लाब आए
वहीं से वो पुकार उठेगा जो ज़र्रा जहाँ होगा