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शेर
वही इक मौसम-ए-सफ़्फ़ाक था अंदर भी बाहर भी
अजब साज़िश लहू की थी अजब फ़ित्ना हवा का था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक
फिर कहो क्यूँ मुझे आशुफ़्ता-सरी रहती है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
हमेशा शेर कहना काम था वाला-निज़ादों का
सफ़ीहों ने दिया दख़्ल इस में जब से बस ये फ़न बिगड़ा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
अफ़्साना मिरे ख़्वाब को ऐ हम-सफ़राँ तल्ख़