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शेर
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
इस शब को तू ही सुब्ह कर अब ऐ ख़दा-ए-सुब्ह
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया