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शेर
तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ
ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है
सलीम कौसर
शेर
मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
मैं जब आ सका न शुमार में मुझे बे-शुमार बना दिया
इक़बाल कौसर
शेर
बर-सर-ए-आम इक़रार अगर ना-मुम्किन है तो यूँही सही
कम-अज़-कम इदराक तो कर ले गुन बे-शक मत मान मिरे
कौसर नियाज़ी
शेर
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
मोहब्बत में अदा की हैं नमाज़ें बे-वुज़ू बरसों
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
मंजधार में नाव डूब गई तो मौजों से आवाज़ आई
दरिया-ए-मोहब्बत से 'कौसर' यूँ पार उतारा करते हैं
कौसर नियाज़ी
शेर
हर शख़्स मो'तरिफ़ कि मुहिब्ब-ए-वतन हूँ मैं
फिर अदलिया ने क्यूँ सर-ए-मक़्तल किया मुझे