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शेर
कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़
शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा
शेर
ख़ुदा हम तो शब-ए-फ़िराक़ से मजबूर हो गए
इस शब को तू ही सुब्ह कर अब ऐ ख़दा-ए-सुब्ह
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
बुला बुला के थके हम क़ज़ा नहीं आई