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शेर
बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
शेर
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
मेरे दिल पर दाँत है अल्लाह की तश्दीद का
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
शाख़-ए-तन्हाई से फिर निकली बहार-ए-फ़स्ल-ए-ज़ात
अपनी सूरत पर हुए हम फिर बहाल उस के लिए