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शेर
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
क्या जाने शाख़-ए-वक़्त से किस वक़्त गिर पड़ूँ
मानिंद-ए-बर्ग-ए-ज़र्द अभी डोलता हूँ मैं
इमरान-उल-हक़ चौहान
शेर
इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
शैख़ जी तुम भी ज़रा कू-ए-बुताँ तक आओ
अली सरदार जाफ़री
शेर
वाइ'ज़ ओ शैख़ सभी ख़ूब हैं क्या बतलाऊँ
मैं ने मयख़ाने से किस किस को निकलते देखा
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
उस बुत का कूचा मस्जिद-ए-जामे नहीं है शैख़
उठिए और अपना याँ से मुसल्ला उठाइए
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
शैख़ इस बुत-शिकनी पर न हो इतना मग़रूर
तू ने तोड़ा नहीं अपना बुत-ए-पिंदार हनूज़
शेख़ ग़ुलाम अली रासिख़
शेर
पहन लो ऐ बुतो ज़ुन्नार-ए-तस्बीह-ए-सुलैमानी
रखो राज़ी इसी पर्दे में हर शैख़-ओ-बरहमन को
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
शेर
शागिर्द-ए-रशीद आप सा हूँ शैख़-जी साहिब
कुछ इल्म ओ अमल तुम ने न शैतान में छोड़ा