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शेर
कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह
ये तिरी तलब का जुनून था मुझे कब किसी से लगाव था
शमीम अब्बास
शेर
शाम ने बर्फ़ पहन रक्खी थी रौशनियाँ भी ठंडी थीं
मैं इस ठंडक से घबरा कर अपनी आग में जलने लगा