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शेर
रोज़ वो ख़्वाब में आते हैं गले मिलने को
मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है क़िस्मत मेरी
जलील मानिकपूरी
शेर
इक टीस जिगर में उठती है इक दर्द सा दिल में होता है
हम रात को रोया करते हैं जब सारा आलम सोता है
ज़िया अज़ीमाबादी
शेर
न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
हर सहर उठ के रुख़-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ देखूँ