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शेर
सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बू-ए-गुलशन से
सूई तागा हमारे चाक-ए-दिल का है कहाँ देखें
वली उज़लत
शेर
रोक के अपनी आँख के आँसू हँस कर उस को रुख़्सत दी
तब समझे हैं यारो हम भी शहनाई क्या होती है
सुजीत सहगल हासिल
शेर
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
क्या वो भी मुसाफ़िर जो न रक्खे सुई तागा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बहुत ही सुस्त था मंज़र लहू के रंग लाने का
निशाँ आख़िर हुआ ये सुर्ख़-तर आहिस्ता आहिस्ता