aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "suube"
सुब्ह होती है शाम होती हैउम्र यूँही तमाम होती है
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैंइतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहींजो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
तू नया है तो दिखा सुब्ह नई शाम नईवर्ना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई
ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्नाथी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसूतिरी सुब्ह कह रही है तिरी रात का फ़साना
सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन रात के शिकवेकफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ
शब को मय ख़ूब सी पी सुब्ह को तौबा कर लीरिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई
इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगेइक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठीजब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर हैये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गयाहोते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया
जो दिल को है ख़बर कहीं मिलती नहीं ख़बरहर सुब्ह इक अज़ाब है अख़बार देखना
लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान देजी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूँ
दिल की बेताबी नहीं ठहरने देती है मुझेदिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं
चल दिए सू-ए-हरम कू-ए-बुताँ से 'मोमिन'जब दिया रंज बुतों ने तो ख़ुदा याद आया
सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोगगठरियाँ सर पे उठाए हुए ईमानों की
नींद भी जागती रही पूरे हुए न ख़्वाब भीसुब्ह हुई ज़मीन पर रात ढली मज़ार में
ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँअब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया
कौन सी बात नई ऐ दिल-ए-नाकाम हुईशाम से सुब्ह हुई सुब्ह से फिर शाम हुई
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