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शेर
छलकी हर मौज-ए-बदन से हुस्न की दरिया-दिली
बुल-हवस कम-ज़र्फ़ दो चुल्लू में मतवाले हुए
सज्जाद बाक़र रिज़वी
शेर
नहीं है ख़ूब सोहबत हर किसी कम-ज़र्फ़ से लेकिन
नहीं गर मानते अज़-राह-ए-नादानी तो बेहतर है
फ़ख़रुद्दीन ख़ाँ माहिर
शेर
अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
हिर्स-ए-ज़र के हर तराज़ू में सुख़न-वर रख दिए
बख़्श लाइलपूरी
शेर
बेश ओ कम का शिकवा साक़ी से 'मुबारक' कुफ़्र था
दौर में सब के ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ पैमाना रहा
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
कुछ ऐसा कर कि ख़ुल्द आबाद तक ऐ 'शाद' जा पहुँचें
अभी तक राह में वो कर रहे हैं इंतिज़ार अपना
शाद अज़ीमाबादी
शेर
कब तक ऐ बाद-ए-सबा तुझ से तवक़्क़ो रक्खूँ
दिल तमन्ना का शजर है तो हरा हो भी चुका
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर
शेर
शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
अपने दिल को सख़्त कर के रिश्ता-ए-इंकार तोड़
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
दिमाग़ अर्श पे है तेरे कम-दिमाग़ों का