aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "taala.ii"
हम-रंग की है दून निकल अशरफ़ी के साथपाता है आ के रंग-ए-तलाई यहाँ बसंत
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँकाश तुझ को भी इक झलक देखूँ
होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर'क्या रब्त मोहब्बत से उस आराम-तलब को
दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हेंथा कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताबदिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
इस तअल्लुक़ में नहीं मुमकिन तलाक़ये मोहब्बत है कोई शादी नहीं
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिरहाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगीलोग बे-वज्ह उदासी का सबब पूछेंगे
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब मेंफिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
अपनी तरफ़ तो मैं भी नहीं हूँ अभी तलकऔर उस तरफ़ तमाम ज़माना उसी का है
बात साक़ी की न टाली जाएगीकर के तौबा तोड़ डाली जाएगी
हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंसजो तअल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं
कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े सेमगर सभी को शिकायत हवा से होती है
तलाक़ दे तो रहे हो इताब-ओ-क़हर के साथमिरा शबाब भी लौटा दो मेरी महर के साथ
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब हैया अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को
रोज़ दीवार में चुन देता हूँ मैं अपनी अनारोज़ वो तोड़ के दीवार निकल आती है
बहार आए तो मेरा सलाम कह देनामुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने
दीदार की तलब के तरीक़ों से बे-ख़बरदीदार की तलब है तो पहले निगाह माँग
सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले
हमें हर वक़्त ये एहसास दामन-गीर रहता हैपड़े हैं ढेर सारे काम और मोहलत ज़रा सी है
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