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शेर
सलीम कौसर
शेर
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
मुईन अहसन जज़्बी
शेर
मुझी से हुए ये रस्ते तमाम जाते हैं उस के दर तक
मैं आ रहा हूँ उसी के दर पर कि अपने अंदर निकल रहा हूँ
सालिम सलीम
शेर
लड़खड़ाना भी है तकमील-ए-सफ़र की तम्हीद
हम को मंज़िल का निशाँ लग़्ज़िश-ए-पैहम से मिला