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शेर
मुझे मंज़ूर गर तर्क-ए-तअल्लुक़ है रज़ा तेरी
मगर टूटेगा रिश्ता दर्द का आहिस्ता आहिस्ता
अहमद नदीम क़ासमी
शेर
सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बू-ए-गुलशन से
सूई तागा हमारे चाक-ए-दिल का है कहाँ देखें
वली उज़लत
शेर
तुम तो ठुकरा कर गुज़र जाओ तुम्हें टोकेगा कौन
मैं पड़ा हूँ राह में तो क्या तुम्हारा जाएगा
नियाज़ फ़तेहपुरी
शेर
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
क्या वो भी मुसाफ़िर जो न रक्खे सुई तागा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मिरा घर तेरी मंज़िल गाह हो ऐसे कहाँ तालेअ'
ख़ुदा जाने किधर का चाँद आज ऐ माह-रू निकला