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शेर
अपने मज़हब में है इक शर्त तरीक़-ए-इख़्लास
कुछ ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से हम
संतोख राय बेताब
शेर
ज़माम-ए-कार अगर मज़दूर के हाथों में हो फिर क्या
तरीक़-ए-कोहकन में भी वही हीले हैं परवेज़ी
अल्लामा इक़बाल
शेर
अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तिरी अंगड़ाई का