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शेर
अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें
ये वो तारीख़ है बिजली गिरी थी जब गुलिस्ताँ पर
क़मर जलालवी
शेर
मुँह खोले तो रोज़ है रौशन ज़ुल्फ़ बिखेरे रात है फिर
इन तौरों से आशिक़ क्यूँ-कर सुब्ह को अपनी शाम करें