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शेर
उजाड़ हो भी चुका मिरा दिल मगर अभी दाग़दार भी है
यही ख़िज़ाँ थी बहार-दुश्मन जो यादगार-ए-बहार भी है
इज्तिबा रिज़वी
शेर
मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
शहर के लोग खड़े हैं ब-सर-ए-बाम तमाम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
इस में आलम की सब आबादी ओ वीराना है
ये जो कुछ पानी से बाहर है ज़मीं थोड़ी सी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हज़ारों बार सींचा है इसे ख़ून-ए-रग-ए-जाँ से
तअ'ज्जुब है मिरे गुलशन की वीरानी नहीं जाती
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
शेर
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
आलम-ए-इम्काँ से भी बाहर मिरा वीराना है