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शेर
घर हमारा फूँक कर कल इक पड़ोसी ऐ 'अतीक़'
दो घड़ी तो हँस लिया फिर बाद में रोया बहुत
अतीक़ इलाहाबादी
शेर
पल्लव मिश्रा
शेर
रात को आ कर जो तुम मिलते तो हाँ इक बात थी
सुब्ह को सूरत दिखाने आफ़्ताब आया तो क्या
जलील मानिकपूरी
शेर
छूटता है एक तो फँसते हैं आ कर इस में दो
आज-कल है गर्म-तर क्या ख़ूब बाज़ार-ए-क़फ़स
मातम फ़ज़ल मोहम्मद
शेर
एक हो जाएँ तो बन सकते हैं ख़ुर्शीद-ए-मुबीं
वर्ना इन बिखरे हुए तारों से क्या काम बने