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शेर
इश्क़ में निस्बत नहीं बुलबुल को परवाने के साथ
वस्ल में वो जान दे ये हिज्र में जीती रहे
जाफ़र अली खां ज़की
शेर
इक ज़रा तेग़-ए-निगह को जो इशारा हो जाए
आप का नाम हो और काम हमारा हो जाए
मेहदी अली ख़ान ज़की लखनवी
शेर
एक नश्तर है कि देता है रग-ए-जाँ को ख़राश
एक काँटा है कि पहलू में चुभोता है कोई
मेहदी अली ख़ान ज़की लखनवी
शेर
बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी
हम तो 'ज़हीर' अपने ही घर की आग में जल कर ख़ाक हुए
ज़हीर काश्मीरी
शेर
'ज़हीर'-ए-ख़स्ता-जाँ सच है मोहब्बत कुछ बुरी शय है
मजाज़ी में हक़ीक़ी के हुए हैं इम्तिहाँ क्या क्या
ज़हीर देहलवी
शेर
राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ओ ज़ाहिर-परस्त
क्या तमाशा दार पर मंसूर ने नट का किया