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शेर
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तिही
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
दयार-ए-इश्क़ है ये ज़र्फ़-ए-दिल की जाँच होती है
यहाँ पोशाक से अंदाज़ा इंसाँ का नहीं होता
आनंद नारायण मुल्ला
शेर
गर है दुनिया की तलब ज़ाहिद-ए-मक्कार से मिल
दीं है मतलूब तो इस तालिब-ए-दीदार से मिल