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शेर
ये माना इंक़लाब-ए-ज़िंदगी में लाख ख़तरे हैं
तमन्ना फिर भी है ये ज़िंदगी ज़ेर-ओ-ज़बर होती
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
है कारवान-ए-क़ुदसी-ए-हर्फ़-ए-अज़ल रवाँ
हर जेहल-ओ-ज़ुल्म-ओ-ज़ुल्मत-ओ-ज़ेर-ओ-ज़बर के साथ
अख़लाक़ अहमद आहन
शेर
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले