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नज़्म
ख़ुदा सोया हुआ है अहरमन महशर-ब-दामाँ है
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
न फ़ासलों में ख़लिश न राहत है क़ुर्बतों में
मैं जी रहा हूँ अजीब बे-रंग साअ'तों में
मुमताज़ राशिद
ग़ज़ल
'महशर' हैं ‘दिलावर’ हैं हैं ‘इरफ़ान’-ओ-‘असअ'द’ भी
मैं भी हूँ बदायूँ से मुझे कम न समझना
अनीस क़ल्ब
ग़ज़ल
निराले रंग में फ़स्ल-ए-बहाराँ आई है यारो
खिले हैं फूल भी इस बार लेकिन दिल नहीं लगता