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ग़ज़ल
क्या क़यामत है कि 'ख़ातिर' कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
ख़ातिर ग़ज़नवी
ग़ज़ल
ग़ज़नवी तो बुत-शिकन ठहरा मगर 'ख़ातिर' ये क्या
तेरे मस्लक में उसे सज्दा रवा कैसे हुआ