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ग़ज़ल
अपने आप को गाली दे कर घूर रहा हूँ ताले को
अलमारी में भूल गया हूँ फिर चाबी अलमारी की
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
अलमारी के इक ख़ाने में याद किसी की रक्खी और
उस की चाबी लटका दी है आती-जाती साँसों से
जानाँ मलिक
ग़ज़ल
दरीचे बंद ज़ेहनों के नहीं खुलते हैं ताक़त से
लगा हो ज़ंग ताले में तो चाबी टूट जाती है
मन्नान बिजनोरी
ग़ज़ल
अब तो मुझ पर भी नहीं खुलता है दरवाज़ा मिरा
तुम तो आते ही मिरे कमरे की चाबी हो गए