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ग़ज़ल
जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी
उस मिट्टी का बोझ उठाते जिस्म की मिट्टी गलती थी
हम्माद नियाज़ी
ग़ज़ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
उसे अपनी ग़लती का एहसास होता रहा 'उम्र-भर
मैं रुख़्सत हुआ था उसे चूम कर लड़-झगड़ कर नहीं
गौरव कुमार
ग़ज़ल
कभी ग़लती से जो मिसरा' मिला लेते हैं अक्सर वो
समझते हैं कि अब हम 'मीर' के उस्ताद हो बैठे
अबू हुरैरा अब्बासी
ग़ज़ल
जुज़ मेरे दाल आप की गलती नहीं कहीं
यूँ मुँह से जितनी चाहिए शेख़ी बघारिए