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ग़ज़ल
'मीर' ओ 'ग़ालिब' क्या कि बन पाए नहीं 'फ़ैज़' ओ 'फ़िराक़'
ज़ोम ये था 'रूमी' ओ 'अत्तार' बन जाएँगे हम
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मुझे भी कुछ अत्तार कर दे उजाला बाँटने वाले
तिरी ख़िदमत में तम्हीद-ए-तमन्ना ले के आया हूँ
इमरान साग़र
ग़ज़ल
है मरीज़-ए-'इश्क़ तो महबूब के पहलू में जा
इस मरज़ की तो दवा मिलती नहीं 'अत्तार पर
बिलाल सहारनपुरी
ग़ज़ल
हूरें ले जाएँगी पैराहन बसाने के लिए
इत्र ख़ाक-ए-पाक-ए-तैबा का तो ऐ अत्तार खींच
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
किसी अत्तार से मिलना तो 'पंछी' है बहुत मुश्किल
जो दिल-आवेज़ ख़ुश्बू हुस्न की महफ़िल से मिलती है
सरदार पंछी
ग़ज़ल
ठग रहा अत्तार बन कर क्यों वो सारे शहर को
नाम दे कर इत्र का वो बेचता है ज़हर को