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ग़ज़ल
तिरा हर उज़्व प्यारे ख़ुश-नुमा है उज़्व-ए-दीगर सीं
मिज़ा सीं ख़ूब-तर अबरू व अबरू सीं भली अँखियाँ
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
क्यूँ कर न होवे क्लिक हमारा गुहर-फ़िशाँ
करते हैं 'आबरू' ये तख़ल्लुस सुख़न में हम
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
किस तरह चश्मों सेती जारी न हो दरिया-ए-ख़ूँ
थल न पैरा 'आबरू' हम वार और वे पार हैं
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
बाँधा है बर्ग-ए-ताक का क्यूँ सर पे सेहरा
किया 'आबरू' का ब्याह है बिंत-उल-एनब सेती
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
हुए फिरते हो दुश्मन 'आबरू' के ऐ सजन अब तो
कहो उल्फ़त दिली और दोस्ती जानी वो क्या हुई
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा
दिवाना नहिं कि अब घर में रहूँ मैं छोड़ कर सहरा
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
दिल चढ़ा मुश्किल से ताक़-ए-अबरू-ए-ख़मदार पर
सौ जगह रस्ते में जब ज़ुल्फ़-ए-रसा पकड़ी गई