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ग़ज़ल
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
ऐ शाह-ए-हुस्न ज़ुल्फ़ ओ रुख़ ओ गोश चश्म ओ लब
क्या क्या इलाक़े हैं तिरी सरकार के लिए
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
मिज़्गाँ पे मिरे लख़्त-ए-जिगर ही नहीं यारो
इस तार से वो रिश्ता अक़ीक़-ए-यमनी है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अगर वुसअत न दीजे वहशत-ए-जाँ के इलाक़े को
तो फिर आज़ादी-ए-ज़ंजीर-ए-पा से कुछ नहीं होता