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ग़ज़ल
तुझ को आवाज़ से समझूँ कि बयाँ से देखूँ
मो'तबर क्या है बता तुझ को कहाँ से देखूँ
मोहम्मद असदुल्लाह
ग़ज़ल
इस पर न जा कि दश्त सी वीराँ हैं पुतलियाँ
वो दिन भी थे कि ख़्वाब के हीरे जड़े रहे
मोहम्मद असदुल्लाह
ग़ज़ल
चटानों की तरह हैं हम मगर टूटे हुए भी हैं
यहाँ हर पल बिखरने का हमें अंदेशा रहता है
मोहम्मद असदुल्लाह
ग़ज़ल
आँखें ही उजड़ जाएँ तो क्या ख़्वाब सजाएँ
नज़रों से उतर जाए तो क्या दिल में बसाएँ