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ग़ज़ल
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
काट कर रातों के पर्बत अस्र-ए-नौ के तेशा-ज़न
जू-ए-शीर-ओ-चश्मा-ए-नूर-ए-सहर लाते रहे