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ग़ज़ल
क़तरा क़तरा इक हयूला है नए नासूर का
ख़ूँ भी ज़ौक़-ए-दर्द से फ़ारिग़ मिरे तन में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर
है दाग़-ए-इश्क़ ज़ीनत-ए-जेब-ए-कफ़न हुनूज़
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं तो बाहर के मनाज़िर से अभी फ़ारिग़ नहीं
क्या ख़बर है कौन से असरार हैं पर्दे के बीच
अनवर मसूद
ग़ज़ल
जो रंग-ए-इश्क़ से फ़ारिग़ हो उस को दिल नहीं कहते
जो मौजों से न टकराए उसे साहिल नहीं कहते
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
ख़िज़ाँ ने दस्त-ए-बसारत को डस लिया 'फ़ारिग़'
चले थे क़ाफ़िला-ए-फ़स्ल-ए-गुल को ठहराने
फ़ारिग़ बुख़ारी
ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया-ओ-दीं से अब कहाँ दम भर की भी मोहलत
हमारी फ़ारिग़-उल-बाली सुधारी साथ बचपन के