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ग़ज़ल
'हाफ़िज़'-ए-हक़-पसंद की बात की क़द्र थी कभी
हर्फ़-ए-ग़लत की तरह क्यूँ हो गया ख़ुद वो अब ग़लत
मोहम्मद विलायतुल्लाह
ग़ज़ल
हफ़ीज़ जौनपुरी
ग़ज़ल
फ़र्श से मुतमइन नहीं पस्त है ना-पसंद है
अर्श बहुत बुलंद है ज़ौक़-ए-नज़र को क्या करूँ
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
न सही पसंद-ए-हिकमत ये शिआ'र-ए-अहल-ए-दिल है
कभी सर भी दे दिया है ब-सलाह-ए-दोस्त-दाराँ