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ग़ज़ल
एक मुद्दत से है लोगों को 'नईमी' की तलाश
क़स्र-ए-तन्हाई की दीवारें गिरा कर देखो
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
है तआक़ुब में 'नईमी' साया सा इक रोज़ ओ शब
दोस्त ही शायद हो कोई मुड़ के तो देखो ज़रा
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
हो कर जुदा भी उस से 'नईमी' मैं जी तो लूँ
लेकिन ये डर है इस से कहीं वो ख़फ़ा न हो
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
क्या सानेहा याद आया 'रज़्मी' की तबाही का
क्यूँ आप की नाज़ुक सी आँखों में नमी आई