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ग़ज़ल
ज़ख़्मों से कहाँ लफ़्ज़ों से मारी गई हूँ मैं
जीवन के चाक से यूँ उतारी गई हूँ मैं
नजमा शाहीन खोसा
ग़ज़ल
वो जो महव थे सर-ए-आइना पस-ए-आइना भी तो देखते
कभी रौशनी में वो तीरगी को छुपा हुआ भी तो देखते
नजमा ख़ान
ग़ज़ल
मुझे जब भी वो गलियाँ और वो रस्ता याद आता है
कोई धुँदला सा मंज़र है जो उजला याद आता है
नजमा शाहीन खोसा
ग़ज़ल
पतझड़ में ख़िज़ाओं में तुझे ढूँड रही हूँ
मैं ज़र्द फ़ज़ाओं में तुझे ढूँड रही हूँ
नजमा शाहीन खोसा
ग़ज़ल
नजमा शाहीन खोसा
ग़ज़ल
इस दिल को है महबूब वही दर्द का नग़्मा
इस दिल में तअ'ज्जुब है ये कोहराम हुआ क्यूँ