aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "'robiina'"
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आयाबात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
जिस में 'रूबीना' नहीं है फ़िक्र-ओ-फ़नक्या कहें क्या शा'इरी है हर तरफ़
अपनी हर बात 'रोबीना' हद में रहीबंद हैं हम तो अख़्लाक़-ओ-आदाब में
मेरी हर बात पर वो ख़फ़ा सा लगेसाफ़-गोई का उस को बुरा सा लगे
जी रही है ये कैसे 'रूबीना'अपनी कुछ देख-भाल कीजिएगा
जिसे चैन मेरा 'अज़ीज़ हो मुझे 'उम्र की वो दु'आ न देहै क़ज़ा की अब मुझे आरज़ू मिरे रब मुझे तू शिफ़ा न दे
ज़रा सोच लेना 'रोबीना' ये दिल मेंतबीअत को ज़ेर-ओ-ज़बर करते करते
वो वफ़ा थी या जफ़ा अच्छी लगीहम को तेरी हर अदा अच्छी लगी
भला थक हार कर बैठूँ 'रोबीना' तो कहाँ बैठूँजिसे मैं छोड़ना चाहूँ मिरी मंज़िल न हो जाए
अपनी ही राहों का पत्थर हो गएहम भी क्या अहल-ए-मुक़द्दर हो गए
गो चारों तरफ़ बज़्म-आराईयाँ हैंमगर मुझ को डसती ये तन्हाइयाँ हैं
अगर बीज रंगों का बोया न होतामुझे इश्क़ ने यूँ डुबोया न होता
दयार-ए-इश्क़ में रौशन-दिमाग़ थे हम भीवो ख़ुश-नज़र था बहुत सब्ज़-बाग़ थे हम भी
मेरे हक़ में नहीं हालात नहीं मानती मैंगर्दिश-ए-वक़्त तिरी बात नहीं मानती मैं
क्या 'रोबीना' तिरे हाथ थकते नहींलिखते लिखते कहानी का किरदार सा
अपनी हद तक उड़ान थी पहलेज़िंदगी बे-निशान थी पहले
अपने घर में क़याम कर जाओचंद लम्हे कलाम कर जाओ
इक रोज़ की ये बात नहीं मेरी 'रूबीना'सदियों से मैं उजड़ा हुआ घर देख रही हूँ
मेरी ख़ूबी से निखरने नहीं देता मुझ कोजब्र उस का ये उभरने नहीं देता मुझ को
फ़ज़ा-ए-इश्क़ में उड़ता हुआ हूँ ताइर मैंवो शाख़-ए-गुल मिरी मंज़िल है और मुसाफ़िर मैं
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