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ग़ज़ल
जो मेरा दिल न हो 'शेरी' हरीफ़ उन की निगाहों का
तो दुनिया भर में बरपा इंक़लाब-ए-आम हो जाए
शेरी भोपाली
ग़ज़ल
है ज़र्रे ज़र्रे की तनवीर दावत-ए-शे'री
ये काएनात है गोया कि शाइ'री के लिए
नसीम फ़ातिमा नज़र लखनवी
ग़ज़ल
हम तो शे'री कैनवस पर बस दिल का हाल रक़म करते हैं
सच्चे जज़्बों से इस पर ख़ुद नक़्श-निगारी हो जाती है
काशिफ़ रफ़ीक़
ग़ज़ल
मुरत्तब हो गई फ़र्द-ए-अमल यूँ ख़ुद-बख़ुद 'कौकब'
मिरे दीवान-ए-शे'री की किताबत होती जाती हे
कौकब मुरादाबादी
ग़ज़ल
कर रहा हूँ कारोबार-ए-शे'र में अपने को ख़र्च
वर्ना ऐसी मद कोई घर के हिसाबों में न थी