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ग़ज़ल
ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से
हम तो शो'लों से न गुज़़रेंगे न सीता समझें
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन
ग़ज़ल
बाबा कहते ये जो खंडर है सीता-राम का मंदिर था
उस मंदिर की एक पुजारन राम-दुलारी होती थी
जानाँ मलिक
ग़ज़ल
अब भी खड़ी है सोच में डूबी उजयालों का दान लिए
आज भी रेखा पार है रावण सीता को समझाए कौन
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पुरानी कश्तियाँ हैं मेरे मल्लाहों की क़िस्मत में
मैं उन के बादबाँ सीता हूँ और लंगर बनाता हूँ
सलीम अहमद
ग़ज़ल
उलूम चौदह मक़ूला दस और जिहात सित्ता बनाए उस ने
उमूर-ए-दुनिया को ताकि पहुंचाएँ ख़ूब सा इंसिराम तीसों