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ग़ज़ल
फ़लक ने चाँद ने तारों ने ख़ुद-कुशी कर ली
तुम्हारे हिज्र के मारों ने ख़ुद-कुशी कर ली
ज्ञानेंद्र विक्रम
ग़ज़ल
सच-मुच अपने राँझे को ही घाइल कर के छोड़ दिया
अच्छा-ख़ासा लड़का तू ने पागल कर के छोड़ दिया
ज्ञानेंद्र विक्रम
ग़ज़ल
मिरी आदत है मैं हर राहबर से बात करता हूँ
गुज़रता हूँ जो रस्ते से शजर से बात करता हूँ
विक्रम शर्मा
ग़ज़ल
अभी क़ाइल हुए ही थे तुम्हारी रहनुमाई के
तभी अंजाम देखे कुछ ख़ुदाओं की ख़ुदाई के
ज्ञानेंद्र विक्रम
ग़ज़ल
खुले हैं हाथ लेकिन पाँव में बेड़ी बंधी सी है
जिसे तुम ज़िंदगी कहते हो मुझ को ख़ुद-कुशी सी है