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ग़ज़ल
मियाँ से बीबी हैं पर्दा है उन को फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
त'अल्लुक़ 'आशिक़-ओ-मा'शूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ पाती रही बीबी मियाँ हो कर
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
यूँ भी तुम क्या हो फ़क़त ख़ाक 'तबस्सुम' बीबी
और फिर बैठनी है आ के कल इस ख़ाक पे ख़ाक
तबस्सुम सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
आप अगर नहीं हैं चोर मैं भी तो फिर नहीं छिछोर
घर में बुला लूँ किस तरह बीबी नहीं मियाँ नहीं
शैदा इलाहाबादी
ग़ज़ल
ऐ मामा छेद भेद कुछ इस में ज़रूर है
बीबी से तू ख़फ़ा है मगर है मियाँ से ख़ुश
इनायत अली ख़ान इनायत
ग़ज़ल
समझें भी दोनों कर रही हैं क्या ये चार पाँच
लौंडी के यार चार हैं बीबी के यार पाँच