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ग़ज़ल
फिर नग़्मा-हा-ए-क़ुम तो फ़ज़ा में हैं गूँजते
तू ही हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-समाअत नहीं रहा
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
मय-ख़ाने में सौ मर्तबा मैं मर के जिया हूँ
है क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे क़ुम-क़ुम से ज़ियादा
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
सकत बाक़ी नहीं है क़ुम बे-इज़्निल्लाह कहने की
मसीहा भी हमारे दौर के बीमार कितने हैं
अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
ग़ज़ल
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मय-ख़ाने में सौ मर्तबा मैं मर के जिया हूँ
है क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे क़ुम-क़ुम से ज़ियादा
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
वो लब-ए-जिबरील का परतव हसीं तर्ज़-ए-कलाम
क़ुम-बे-इज़्नी का हम ए'जाज़-ओ-अदा कल रात को
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
कहाँ कौन सम्त से आ गई मिरे वास्ते ये सदा-ए-क़ुम
कहाँ कौन सम्त में चल दिए मिरे गाम सोचते सोचते
निवेश साहू
ग़ज़ल
मो'जिज़ा हज़रत-ए-ईसा का था बे-शुबह दुरुस्त
कि मैं दुनिया से गया उठ जो कहा क़ुम मुझ को