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ग़ज़ल
हाँ फिर तू कहियो हाए वो किस तरह होए ग़ज़ब
'इंशा' न छेड़ मुझ को मिरी जान की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
पूछा था मैं ने क़ैस से जा कर ये दश्त में
जिस में न होए सब्र-ओ-तहम्मुल वो क्या करे
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
वो मस्त-ए-शराब-ए-हुस्न ग़ुस्से से निहायत ही
खींचे होए आता है तलवार ख़ुदा-हाफ़िज़
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मिज़ाजें ना-मुवाफ़िक़ हों तो कब सोहबत बरार होए
नहीं मिलती हमारी तब्अ इन दुनिया के जीफ़ों सीं
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि न हों
कुछ खटकते होए अल्फ़ाज़ नज़र आते हैं