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ग़ज़ल
परिंदों का शजर को छोड़ कर जाना ज़रूरी था
कि ताइर को ख़िज़ाँ का ख़ौफ़ भी खाना ज़रूरी था
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
मक़्तल में चलने वाला हर चाक़ू माँगे आज़ादी
सड़कों पर उठने वाला हर बाज़ू माँगे आज़ादी
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
सरसों के खेतों में अपने काग़ज़ धानी करते करते
ग़ज़लें सारी लिक्खी हम ने ख़ूँ को पानी करते करते
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
सुनता है कामनटरी हीरो रेडियो रख कर कानों पर
बॉलिंग बैटिंग चौव्वा छक्का ये मालूम न वो मालूम
पागल आदिलाबादी
ग़ज़ल
निस्फ़ खुली आँखों से देखा सब मुबहम मुबहम लागे
दहशत ओढ़ी धरती को अब आहू भी ज़ैग़म लागे
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
क़फ़स खोला था मैं ने आज जब पंछी उड़ाने को
परिंदा रुक गया इक जेल के क़िस्सा सुनाने को
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
जानती हूँ शहर में इक घर बनाना मसअला है
गाँव को अपने बिलकता छोड़ आना मसअला है
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
ज़बान-ए-वक़्त पे है जिस का लहजा-ए-आवाज़
वो शख़्स ही तो है हीरो मिरी कहानी का