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ग़ज़ल
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
खेला बचपन झूमा लड़कपन लहकी जवानी चौबारों में
लाठी थामे देखा बुढ़ापा नगरी के गलियारों में
इशरत क़ादरी
ग़ज़ल
ईमान की छागल फूट गई आमाल की लाठी टूट गई
हम ऐसे गल्लाबानों के सब नाक़े ख़ौफ़-ए-क़िताल में हैं
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
वो साहिर जो बना देता है पत्थर सब दिवानों को
है मुमकिन उस की लाठी भी कभी तलवार बन जाए
दर्द फ़ैज़ ख़ान
ग़ज़ल
जिस की लाठी में है दम भैंस भी उस की होगी
ज़ुल्म क्या जाने कि होती है शराफ़त कैसी