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ग़ज़ल
ललक एक सी न ऐ कोयल न तिरा सा दिल है मेरा दिल
तिरी कूक को मैं क्या समझूँ मिरी हूक को तू क्या जाने
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
हर दर्द नीं जियूँ क़ुत्ब मुझे देख के साबित
क़ुर्बान मिरे गिर्द हो गर्दूं ने कहा बस
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
वली काकोरवी
ग़ज़ल
उठती है अपने दिल से कुछ ऐसी ही हूक सी
पड़ जाती जिस से दश्त में है एक कूक सी